बिहार के महाकांड: जब एक-एक कर रेता 34 का गला, जिसने बचने की कोशिश की उसे पहले गोली मारी फिर काट डाला

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बिहार के गया जिले से करीब 35 किलोमीटर दूर टेकरी ब्लॉक के करीब एक गांव है। नाम है- बारा। यूं तो बारा गांव आज पूरे मगध प्रमंडल की तरह शांत है, लेकिन आज से करीब 33 वर्ष पहले 1992 में यहां कुछ ऐसा घटनाक्रम घटा था, जिसकी छाप आज भी यहां के लोगों के दिमाग में है। इस पूरे घटनाक्रम को उस दौरान हत्याकांड करार दिया जाता रहा। हालांकि, जैसे-जैसे मामले में एक ही वर्ग के मृतकों की संख्या बढ़ी और हत्यारों की बर्बरता का खुलासा हुआ, इसे हर तरफ नरसंहार करार दिया जाने लगा।

बिहार के महाकांड के 10वें भाग में जानते हैं बारा नरसंहार की कहानी। आखिर गया के नजदीक एक गांव में 12-13 फरवरी को क्या हुआ था? इस पूरे नरसंहार की पृष्ठभूमि क्या थी? इसे किसने और कैसे अंजाम दिया था? अदालतों में इस मामले में क्या-क्या हुआ? आइये जानते हैं…

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पहले जानें- क्या थी बारा नरसंहार की पृष्ठभूमि?

नरसंहार का केंद्र
बारा नरसंहार भूमिहीन किसानों और मजदूरों के लिए हिंसक माध्यमों से आवाज उठाने वाले माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और उच्च वर्ग के संगठन- सवर्ण लिबरेशन फ्रंट (एसएलएफ) के बीच संघर्ष की उपज थी और इस संघर्ष का केंद्र बना गया के करीब बारा गांव। इस छोटे गांव में उस दौरान महज 50 घर हुआ करते थे, जिनमें 40 घर अकेले भूमिहार जाति के लोगों के थे। इसके अलावा छह घर ब्राह्मण समुदाय के, एक यादव और एक घर तेली समुदाय का था। इसके अलावा एक दो दलित परिवार भी गांव में रहते थे। यह गांव अपने आसपास के गांवों, जैसे खुलुनी, देहुरा और नेइन बीघा से काफी अलग था। दरअसल, बाकी के गांवों में दलित आबादी अच्छी-खासी थी, जबकि बारा भूमिहार बहुल गांव था। यहां की अधिकतर जमीन भी भूमिहार जाति के लोगों के पास ही थी।

नरसंहार से जुड़े चेहरे/संगठन

माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी)
1980-90 के दौरे के बिहार की बात करें तो यहां माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी)  ने इस दौरान उच्च जातियों से आने वाले कई लोगों के खिलाफ हिंसा की और उन्हें मौत के घाट उतारा। एमसीसी का आतंक इस कदर था कि इस संगठन ने उच्च जातियों की कई निजी सेनाओं जैसे भूमिहारों की ब्रह्मर्षि सेना, राजपूतों की कुंवर सेना, कुर्मियों की भूमि सेना और यादवों की लोरिक सेना तक पर जमकर कहर बरपाया।

हालांकि, 1990 आते-आते उच्च और पिछड़ी जातियों के इन संगठनों ने फिर से खुद को खड़ा करना शुरू किया। इकोनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली मैगजीन में कृष्ण चैतन्य की रिपोर्ट के मुताबिक, जब तक राज्य में सत्ता की चाभी उच्च वर्ग के हाथ में थी, तब तक जमींदारों को यह विश्वास था कि वह मजदूरों और किसानों से आसानी से निपट सकते हैं। लेकिन बिहार में जनता दल के उभार ने उच्च जातियों की चिंताओं को बढ़ा दिया। ऐसे में उच्च वर्ग ने अपने जातीय मतभेदों को भुलाते हुए एक अलग सवर्ण लिबरेशन फ्रंट बनाया।

सवर्ण लिबरेशन फ्रंट
इसी के साथ भूमिहारों की निजी सेना- ब्रहर्षि सेना के प्रमुख ‘राजा’ महेंद्र ने सवर्णों की सेना को वित्तीय मदद पहुंचाने की शुरुआत की। देखते ही देखते सवर्ण लिबरेशन फ्रंट गया और जहानाबाद क्षेत्र में भूमिहार जमींदारों का मजबूत संगठन बन गया। इस संगठन ने सैकड़ों की संख्या में बंदूकें और अन्य हथियार भी जुटा लिए। इसका नेतृत्व संभाला रमाधार सिंह ने, जिसे उसके साथी ‘डायमंड’ नाम से भी बुलाते थे। रमाधार ने कई बार पत्रकारों के सामने दावा किया था कि वह मध्य बिहार से नक्सलवाद को पूरी तरह साफ कर देगा और उसका इतिहास मजदूरों की चिता पर लिखा जाएगा। इतना ही नहीं रमाधार ने कुछ समय बाद ही 100 से ज्यादा नक्सलियों को मौत के घाट उतारने का दावा करना भी शुरू कर दिया।

सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने एमसीसी की हिंसा का जवाब हिंसा से देना शुरू कर दिया। बताया जाता है कि इसके पीछे एक वजह रमाधार सिंह की एमसीसी से निजी दुश्मनी भी थी। दरअसल, माओवादियों ने रमाधार के बहनोई, जो कि अपने क्षेत्र में भूमिहीन मजदूरों के लिए आतंक का पर्याय बन चुका था, को मार गिराया था। इसके बाद रमाधार ने जातीय जंग को अपनी निजी जंग मान लिया था।

फिर शुरू हुई दो संगठनों के बीच खूनी जंग
और एमसीसी के निशाने पर आया बारा गांव?
बताया जाता है कि इस घटना के बाद बारा गांव एमसीसी कैडर के निशाने पर आ गया। एक स्थानीय नेता ने  एमसीसी के लोगों को संदेश दिया कि जिस तरह भूमिहार हमारे लोगों को खेतीहर मजदूरों की तरह काम पर रखते हैं, उसी तरह हमें भी भूमिहारों की महिलाओं को काम पर रखना होगा और जब तक यह नहीं होगा, तब तक हमें सामाजिक न्याय नहीं मिलेगा।
एमसीसी ने यह संदेश नरसंहार का शिकार हुए बारासिम्हा गांव तक पहुंचाना शुरू किया। इतना ही नहीं एमसीसी ने यह गलत जानकारी फैलानी शुरू की कि सवर्ण लिबरेशन फ्रंट के रमाधार सिंह और हरद्वार सिंह 12-13 फरवरी को बारा में होंगे। इस गलत जानकारी को फैलाने का मकसद बारासिम्हा गांव के लोगों को महज तीन किमी दूर बारा गांव पर हमले के लिए उकसाना था। चौंकाने वाली बात यह है कि रमाधार सिंह 9 फरवरी से ही पटना में छिपा था। हालांकि, बारा में नरसंहार के बीज बोए जा चुके थे।

नरसंहार की रात बारा गांव में क्या-क्या हुआ?
12-13 फरवरी की दरमियानी रात बारा गांव में खूनी रात साबित हुई। चश्मदीदों के मुताबिक, रात में करीब 9.30 बजे 500 लोगों की भीड़ बंदूक और पारंपरिक हथियार लेकर गांव में घुस गई। इसका नेतृत्व माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर कर रहा था। इस भीड़ ने चुन-चुनकर 34 लोगों के सिर काट कर उन्हें मौत के घाट उतार दिया।

बताया जाता है कि बारा में नरसंहार की शुरुआत के लिए पहले लोगों के घरों में बम फेंककर उन्हें खौफजदा किया गया। इसके बाद जैसे ही गांव के लोग बाहर निकले, उन्हें घेरकर पकड़ लिया गया। इतना ही नहीं उग्र भीड़ ने एक के बाद एक घर के दरवाजे तोड़ने शुरू कर दिए और उनसे रामाधार सिंह और हरद्वार सिंह का पता पूछना शुरू कर दिया।