बिहार की राजनीति हमेशा से जातीय समीकरणों पर टिकी रही है, लेकिन इस बार हालात थोड़े अलग हैं। Bihar Election: 18 फीसदी दलितों ने दिया साथ तो मिलेगा ताज, दूसरे चरण में 100 से अधिक सीटों पर असर यह बयान अब सिर्फ एक हेडलाइन नहीं, बल्कि पूरे चुनावी माहौल की धड़कन बन चुका है। दलित वोट बैंक इस बार चुनावी चौसर का ऐसा मोहरा बन गया है, जो खेल ही पलट सकता है। सवाल अब यह नहीं कि कौन जीतेगा, बल्कि यह है कि दलित वोटर्स किसे “ताज” पहनाएंगे?
बिहार चुनाव: 18 फीसदी दलितों ने दिया साथ तो मिलेगा ताज, दूसरे चरण में 100 से अधिक सीटों पर असर
अगर बिहार के चुनावी नक्शे को ध्यान से देखा जाए तो राज्य की लगभग 18% आबादी दलित समुदाय से आती है, और यही वर्ग इस बार सबसे बड़ा “किंगमेकर” साबित हो सकता है। खासतौर पर दूसरे चरण की 100 से ज्यादा सीटों पर इन वोटर्स का असर निर्णायक भूमिका निभाने वाला है।
जहाँ एक तरफ एनडीए गठबंधन दलित कार्ड को मज़बूत करने में जुटा है, वहीं महागठबंधन अपने पुराने वोट बेस को बरकरार रखने की कोशिश में है।
दलित वोटर्स के रुख में ज़रा सा झुकाव भी कई सीटों पर जीत-हार का अंतर तय कर सकता है। बिहार में यह समुदाय सिर्फ एक वोट बैंक नहीं, बल्कि सामाजिक पहचान और राजनीतिक शक्ति का प्रतीक बन चुका है।
बिहार का इतिहास बताता है कि जिसने दलित वोट्स का भरोसा जीता, उसने सत्ता की सीढ़ियाँ चढ़ीं।
- दलित वोटर्स की संख्या करीब 2 करोड़ से अधिक है।
- ये वोटर्स 100+ विधानसभा क्षेत्रों में सीधे असर डालते हैं।
- राजनीतिक दल लगातार नए उम्मीदवार, योजनाएँ और वादे लेकर इन्हें लुभाने की कोशिश कर रहे हैं।
इनमें सबसे अहम भूमिका निभा रही है पासवान वोट बैंक, जो पहले से ही लोक जनशक्ति पार्टी (LJP) के इर्द-गिर्द केंद्रित रहा है। मगर अब ये वोट अलग-अलग दलों में बँटते दिख रहे हैं जो कई सीटों पर ट्रेंड बदल सकता है।
अब बात करें “रणनीति” की। दलित वोट पाने की होड़ में हर पार्टी मैदान में उतर चुकी है।
- एनडीए (BJP + JDU) ने कई दलित नेताओं को आगे लाकर दलित सशक्तिकरण पर फोकस किया है।
- राजद (RJD) ने सामाजिक न्याय की अपनी परंपरा के जरिए दलितों को जोड़ने की कवायद तेज की है।
- कांग्रेस दलित युवाओं को रोजगार और शिक्षा के वादों से आकर्षित करने की कोशिश में है।
- वहीं, छोटे दल जैसे वीआईपी और एलजेपी (रामविलास) सीट बंटवारे में अपनी भूमिका साबित करने के मूड में हैं।
सभी दल जानते हैं बिहार में सत्ता की चाबी अब सिर्फ जातीय समीकरणों में नहीं, बल्कि दलित समर्थन में छिपी है।
दूसरा चरण बिहार चुनाव 2025 का “टर्निंग पॉइंट” कहा जा रहा है।
- लगभग 102 सीटें इस चरण में वोटिंग के लिए जाएँगी।
- इनमें से 60+ सीटों पर दलित मतदाता 15-30% तक प्रभावशाली हैं।
- कई हॉट सीटों जैसे अरवल, जहानाबाद, गया, और सासाराम में दलित मतदाता निर्णायक हैं।
अगर इन क्षेत्रों में एकतरफा वोटिंग पैटर्न बनता है, तो नतीजे किसी भी पार्टी के लिए चौंकाने वाले हो सकते हैं।
पिछले कुछ सालों में बिहार के दलित युवाओं में राजनीतिक जागरूकता तेजी से बढ़ी है।
- सोशल मीडिया के ज़रिए वे अब अपनी आवाज़ सीधे रख पा रहे हैं।
- सरकारी योजनाओं और अधिकारों की जानकारी ने उन्हें सशक्त बनाया है।
- अब वे “केवल वादा” नहीं, बल्कि “काम का सबूत” मांगते हैं।
यही वजह है कि दलित युवाओं का वोट किसी पार्टी की जेब में सुरक्षित नहीं रहा।
अगर दलित वोट एकतरफा किसी एक गठबंधन को चला गया
तो Bihar Election: 18 फीसदी दलितों ने दिया साथ तो मिलेगा ताज, दूसरे चरण में 100 से अधिक सीटों पर असर यह हेडलाइन हकीकत बन सकती है।
लेकिन अगर वोट बँट गए, तो मुकाबला त्रिकोणीय हो जाएगा और कुछ सीटों पर अप्रत्याशित नतीजे देखने को मिल सकते हैं।
निष्कर्ष
बिहार का चुनाव सिर्फ “कुर्सी की दौड़” नहीं, बल्कि सामाजिक संतुलन की कहानी भी है। Bihar Election: 18 फीसदी दलितों ने दिया साथ तो मिलेगा ताज, दूसरे चरण में 100 से अधिक सीटों पर असर यह सिर्फ एक नारा नहीं, बल्कि बिहार के भविष्य की दिशा तय करने वाला तथ्य है।
दलितों की एकजुटता अगर कायम रही, तो ये समुदाय इतिहास रच सकता है। वरना बिहार की सत्ता का खेल फिर वही पुराना “अगर-मगर” बनकर रह जाएगा।




