डॉकिंग: अंतरिक्ष यानों के मिलन की रोमांचक और सटीक विज्ञान गाथा; तकनीक का चमत्कार नहीं इसमें जोखिम भी

0
3

अंतरिक्ष में तैरते अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन (आईएसएस) पर जब कोई अंतरिक्ष यान जुड़ता है, तो यह केवल तकनीक का चमत्कार नहीं, बल्कि अत्यंत संवेदनशील और वैज्ञानिक रूप से नियंत्रित प्रक्रिया होती है। इसे डॉकिंग कहा जाता है।

इसमें मिलीमीटर की सटीकता, हाई-टेक सेंसर और अंतरिक्ष यात्रियों की सतर्कता की दरकार होती है। चाहे वह रूस का सोयूज हो, अमेरिका का स्पेसएक्स ड्रैगन या चीन का शेनझोउ। हर यान को अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़ने के लिए सटीक कोरियोग्राफी का पालन करना पड़ता है। स्पेस डॉकिंग विशेषज्ञों का कहना है कि डॉकिंग में छोटी सी गलती भी बड़े हादसे में बदल सकती है, इसलिए इसे अंतरिक्ष मिशन का सबसे चुनौतीपूर्ण चरण माना जाता है। फिर भी हर सफल डॉकिंग भविष्य की मानव अंतरिक्ष यात्राओं का रास्ता और अधिक प्रशस्त करती है। पूर्व नासा फ्लाइट डायरेक्टर डॉ.माइक लॉरिएन के अनुसार डॉकिंग की यह अद्भुत प्रक्रिया 6 चरणों में पूरी होती है।

Ads
डॉकिंग की तैयारी : पृथ्वी से लेकर कक्षा तक
डॉकिंग की प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब पृथ्वी से अंतरिक्ष यान प्रक्षेपित होता है और यह अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन की कक्षा तक पहुंचता है। स्टेशन लगभग 400 किमी की ऊंचाई पर पृथ्वी के चारों ओर 28,000 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से घूम रहा होता है। यान को पहले इस कक्षा में स्थिर होना होता है और फिर स्टेशन के साथ गति व स्थिति का मिलान करना होता है।

प्रॉक्सिमिटी ऑपरेशंस : कुछ मीटर की दूरी तक पहुंचना
जब यान स्टेशन के 250 मीटर के भीतर आ जाता है तो प्रॉक्सिमिटी ऑपरेशंस शुरू होते हैं। यान में लगे कैमरे, लेजर सेंसर और रडार स्टेशन को स्कैन करना शुरू करते हैं और डॉकिंग पोर्ट को लक्ष्य बनाते हैं। दोनों यानों में जीपीएस जैसी सटीक नेविगेशन प्रणाली लगी होती है, जो दोनों के बीच की स्थिति, गति और कोणों का सटीक विश्लेषण करती है।

धीमी व सटीक गति से मिलन
इस चरण में यान और स्टेशन के बीच की दूरी धीरे-धीरे कम की जाती है। यह प्रक्रिया पूरी तरह कंप्यूटर नियंत्रित होती है, जिसमें यान को कई बार अपनी गति कम या ज्यादा करनी पड़ती है, ताकि वह स्टेशन की गति और दिशा से मेल खा सके। इसमें कई ऑर्बिटल बर्न्स किए जाते हैं यानि इंजन को नियंत्रित समय के लिए जलाकर कक्षा बदली जाती है।

फाइनल अप्रोच और डॉकिंग यानी मिलीमीटर की सटीकता
इस चरण में यान डॉकिंग पोर्ट के एकदम सामने लाकर धीरे-धीरे आगे बढ़ाया जाता है। गति आमतौर पर 0.1 मीटर प्रति सेकंड या उससे भी कम होती है। जब यान पोर्ट को छूता है, तब उसमें लगे सॉफ्ट कैप्चर मैकेनिज्म स्टेशन के पोर्ट को पकड़ लेते हैं। इसके बाद हार्ड कैप्चर रिंग्स सक्रिय होती हैं और दोनों यान यांत्रिक रूप से लॉक हो जाते हैं।

एयरटाइट सील और इंटरनल चेकिंग
डॉकिंग के बाद सबसे जरूरी कार्य होता है एयरटाइट सील की जांच करना ताकि कोई हवा का रिसाव न हो। इसके लिए कई सेंसर दबाव को मापते हैं। सफल परीक्षण के बाद दोनों यानों के बीच का हैच खोला जाता है और अंतरिक्ष यात्री स्टेशन के अंदर प्रवेश करते हैं।

जोखिम भी कम नहीं
1971 में सोवियत संघ के मिशन सोयूज-10 ने पहली बार स्पेस स्टेशन साल्युट-1 से डॉकिंग की कोशिश की, लेकिन यान का लॉकिंग मैकेनिज्म काम नहीं कर सका और मिशन को अधूरा छोड़कर अंतरिक्ष यात्रियों को वापस लौटना पड़ा। इसी वर्ष का दूसरा मिशन सोयूज-11, जो पहली बार किसी मानवयुक्त मिशन के साथ सफलतापूर्वक साल्युट-1 से जुड़ा था, वापसी के दौरान यान में वायुदाब गिर गया और तीनों अंतरिक्ष यात्रियों की मौत हो गई।