उत्तराखंड की देवभूमि एक बार फिर प्रकृति के प्रकोप की चपेट में आ गई है। उत्तरकाशी के धराली गांव में मंगलवार दोपहर बाद बादल फटने की घटना ने भारी तबाही मचा दी। खीरगंगा में आए तेज़ बाढ़ के कारण निचले इलाकों में स्थित कई होटल और मकान मलबे में तब्दील हो गए। कई लोग लापता हैं और पूरे क्षेत्र में अफरा-तफरी का माहौल है।
उत्तरकाशी सदियों से अपनी आध्यात्मिकता, सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध रहा है। यह क्षेत्र गंगा और यमुना जैसी पवित्र नदियों का उद्गम स्थल है। लेकिन समय के साथ जिस प्रकार यहां पर प्राकृतिक आपदाएं बार-बार दस्तक दे रही हैं, उसने एक बड़ा सवाल खड़ा कर दिया है – क्या हम विकास की आड़ में अपने ही विनाश को न्योता दे रहे हैं?

इस बार खीरगंगा ने जिस तरह रौद्र रूप धारण किया, वह चौंकाने वाला था। स्थानीय बुजुर्गों के अनुसार, 1978 में भी खीरगंगा इसी मार्ग से बहती थी, और अब भी वही मार्ग अपनाकर सब कुछ बहा ले गई। इस क्षेत्र की संवेदनशीलता पहले से ही दर्ज है, लेकिन इसके बावजूद मनमाने निर्माण कार्यों और मानकों की अनदेखी ने खतरे को और बढ़ा दिया है।
उत्तरकाशी में 1991 में आए भूकंप के बाद भूकंपरोधी निर्माण और मास्टर प्लान की बातें ज़रूर हुईं, लेकिन ज़मीन पर कुछ खास लागू नहीं किया गया। 2012 और 2023 में बादल फटने की घटनाओं ने फिर चेताया, लेकिन इन चेतावनियों को भी दरकिनार कर दिया गया। सरकार और अदालत दोनों ने नदियों से उचित दूरी बनाए रखने की बात कही, लेकिन न तो अतिक्रमण रुका और न ही अवैध निर्माण।
निर्माण का दबाव और विनाश की नींव
नदी की राह में और जलागम क्षेत्रों में लगातार नियमों के विरुद्ध निर्माण किए जा रहे हैं। यह सिर्फ उत्तरकाशी तक सीमित नहीं है। चमोली, रुद्रप्रयाग, श्रीनगर जैसे शहरों में भी नदी के किनारे बहुमंजिला इमारतें खड़ी हो रही हैं। इन होटलों और रिसॉर्ट्स की चमक-दमक में पहाड़ों की कराह अनसुनी रह जाती है। हाईकोर्ट ने स्पष्ट आदेश दिया है कि नदियों से 200 मीटर के भीतर निर्माण न हों, लेकिन इसे सख्ती से लागू करने की आवश्यकता है।
भारी बोझ ढोते पहाड़
हाल के वर्षों में उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में मैदानों से अधिक निर्माण कार्य हुआ है। पहाड़ों को काटकर समतल किया जा रहा है, पेड़ों की अंधाधुंध कटाई हो रही है, और सीमेंट व सरिए का भार इन नाज़ुक पहाड़ों पर थोप दिया गया है। इससे भू-स्खलन और आपदाओं का खतरा कई गुना बढ़ गया है। अगर समय रहते चेतावनी नहीं ली गई, तो आने वाले दिनों में यह बड़े विध्वंस का कारण बन सकता है।
समय चेतने का है
हर साल जब उत्तराखंड आपदाओं से जूझता है, तो सरकारें वादे करती हैं, योजनाएं बनती हैं, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर पर वही पुरानी लापरवाही नजर आती है। पहाड़ों की धारण क्षमता की अनदेखी और असंतुलित विकास की दौड़ देवभूमि की पहचान को खतरे में डाल रही है।
अब वक्त आ गया है कि विकास के मापदंडों को फिर से परखा जाए, और उन्हें उत्तराखंड जैसे पहाड़ी राज्य की संवेदनशीलता के अनुसार ढाला जाए। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब ‘देवभूमि’ की धारणा ‘आपदाग्रस्त भूमि’ में बदल जाएगी।